Sunday, December 29, 2019
ब्राह्मणों की वंशावली
Saturday, December 21, 2019
Monday, November 18, 2019
सेक्सी संस्कृत श्लोक
Monday, June 10, 2019
राम राम
*7 शब्दों से बने भगवान का तारक मंत्र।।*
*श्री राम, जय राम, जय जय राम*
'श्री राम जय राम जय जय राम' - यह सात शब्दों वाला तारक मंत्र है। साधारण से दिखने वाले इस मंत्र में जो शक्ति छिपी हुई है, वह अनुभव का विषय है। इसे कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। फल बराबर मिलता है।
हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य आज यही है कि हम राम नाम का सहारा नहीं ले रहे हैं। हमने जितना भी अधिक राम नाम को खोया है, हमारे जीवन में उतनी ही विषमता बढ़ी है, उतना ही अधिक संत्रास हमें मिला है। एक सार्थक नाम के रुप में हमारे ऋषि-मुनियों ने राम नाम को पहचाना है। उन्होंने इस पूज्य नाम की परख की और नामों को आगे लाने का चलन प्रारंभ किया।
प्रत्येक हिन्दू परिवार में देखा जा सकता है कि बच्चे के जन्म में राम के नाम का सोहर होता है। वैवाहिक आदि सुअवसरों पर राम के गीत गाए जाते हैं। राम नाम को जीवन का महामंत्र माना गया है।
राम सर्वमय व सर्वमुक्त हैं। राम सबकी चेतना का सजीव नाम हैं।
*अस समर्थ रघुनायकहिं, भजत जीव ते धन्य॥* प्रत्येक राम भक्त के लिए राम उसके हृदय में वास कर सुख सौभाग्य और सांत्वना देने वाले हैं।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिख दिया है कि प्रभु के जितने भी नाम प्रचलित हैं, उन सब में सर्वाधिक श्री फल देने वाला नाम राम का ही है।
यह नाम सबसे सरल, सुरक्षित तथा निश्चित रुप से लक्ष्य की प्राप्ति करवाने वाला है। मंत्र जप के लिए आयु, स्थान, परिस्थिति, काल, जात-पात आदि किसी भी बाहरी आडम्बर का बंधन नहीं है। किसी क्षण, किसी भी स्थान पर इसे जप सकते हैं।
जब मन सहज रूप में लगे, तब ही मंत्र जप कर लें। तारक मंत्र *'श्री'* से प्रारंभ होता है। *'श्री'* को सीता अथवा शक्ति का प्रतीक माना गया है। राम शब्द *'रा'* अर्थात् र-कार और *'म'* मकार से मिल कर बना है। *'रा'* अग्नि स्वरुप है। यह हमारे दुष्कर्मों का दाह करता है। *'म'* जल तत्व का द्योतक है। जल आत्मा की जीवात्मा पर विजय का कारक है।
इस प्रकार पूरे तारक मंत्र - *'श्री राम, जय राम, जय जय राम'* का सार निकलता है - शक्ति से परमात्मा पर विजय। योग शास्त्र में देखा जाए तो *'रा'* वर्ण को सौर ऊर्जा का कारक माना गया है। यह हमारी रीढ़-रज्जू के दाईं ओर स्थित पिंगला नाड़ी में स्थित है। यहां से यह शरीर में पौरुष ऊर्जा का संचार करता है। *'म'* वर्ण को चन्द्र ऊर्जा कारक अर्थात स्त्री लिंग माना गया है। यह रीढ़-रज्जू के बांई ओर स्थित इड़ा नाड़ी में प्रवाहित होता है।
इसीलिए कहा गया है कि श्वास और निश्वास में निरंतर र-कार *'रा'* और म-कार *'म'* का उच्चारण करते रहने से दोनों नाड़ियों में प्रवाहित ऊर्जा में सामंजस्य बना रहता है। अध्यात्म में यह माना गया है कि जब व्यक्ति *'रा'* शब्द का उच्चारण करता है तो इसके साथ-साथ उसके आंतरिक पाप बाहर फेंक दिए जाते हैं। इससे अंतःकरण निष्पाप हो
जाता है।
*जयश्री सीताराम*🌹🙏🏻
*श्री हनुमते नमः*🙏🏻🌹
Friday, April 19, 2019
जनेऊ क्या है
जनेऊ क्या है और इसकी क्या महत्वता है?
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है।
यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है।यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।
पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
वैदिक धर्म में प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। प्रत्येक आर्य को जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।
जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।
चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।
जनेऊ के नियम :
1.यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।
2.यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित यज्ञोपवीत शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।
4.यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित करें ।
5.मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।
* चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
*वैज्ञानिकों अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।*
*कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।*
* कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।
* माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कमर तक स्थित है।
जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।
* जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से दूर रहने लगता है।
Thursday, April 18, 2019
चूतिये चार तरह के होते हैं
चूतिये चार तरह के होते हैं ,, नस्लन / मसलन / शक्लन / बकलन
(1) नस्लन : - ये चूतिये केवल इसलिये चूतिये होते हैं ,, क्योंकि इनके बाप भी अपने समय के बहुत बड़े चूतिया थे .. !!
उदाहरण : -
(2) मसलन : - ये वो होते हैं ,, जिनकी मिसाले दी जाती है .. !!
उदाहरण : -
(3) शक्लन : - यह वो वाले होते हैं ,, जिनको सिर्फ शक्ल से ही पहचान लिया जाता है .. बाकी टेस्ट की जरूरत ही नही पड़ती .. !!
उदाहरण :
(4) बकलन : - ये वो स्पेशल वैराइटी होती है ,, जो हर तरह से समझदार लगते हैं ; लेकिन एकाएक कुछ ऐसा बोल या कर देते हैं ,, कि इनको भी चूतिया मानना ही पड़ता है .. !!
उदाहरण :
Tuesday, March 12, 2019
नकटा: सरग लाल गेनवा
नकटा: सरग लाल गेनवा
विलुप्त होते लोकगीतों की श्रृंखला में यह नकटा अपने में अनोखा है। यद्यपि इससे मिलते जुलते कई गीत बाद के काल खण्डों में भी रचे गये हैं किन्तु मौलिकता का कोई विकल्प नहीं।
गीत स्वतः बोधक है... पर्त दर पर्त रिश्तों के चरित्र गीत की लय में उतराते-उतरते हैं। बस रिश्तों की कड़ियाँ जोड़ते जाइए, गीत लम्बा होता रहेगा।
रचना: पारम्परिक
स्वर: मानकेशरी पाण्डेय एवं इंदू तिवारी
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै।
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै।।
ससरू जो होतें तोड़ि ताड़ि लउतें -2
सास घराँ मलकिन, के हमरे तोड़ै -2
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै।
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै।।
जेठ जी होतें तोड़ि ताड़ि लउतें -2
जेठान घराँ मलकिन, के हमरे तोड़ै -2
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै।
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै।।
देवरू ज़ो होतें तोड़ि ताड़ि लउतें -2
देवरानी घराँ मलकिन, के हमरे तोड़ै,
ननद घराँ मलकिन, के हमरे तोड़ै
सरग लाल गेनवा के हमरे तोड़ै - 2
सोहर: दादी के खजाने से
सोहर: दादी के खजाने से
कई बरस गुजर गए। पति परदेस से घर नहीं लौटा। विरह-कातर व्याहता देवर के साथ उन्हें ढूँढ़ने निकलती है पर पता भी तो नहीं मालूम ! सो एक चरित्रहीन स्त्री के वेश में वह हर गली हर मुहल्ला उन्हें ढूँढती है। अंततः कामयाब होती है। पति के साथ उसी वेश में उसके साथ रहती है और कुछ महीनों बाद गर्भ में वंश-वल्लरी सँजोये पति की कुछ निशानियाँ लेकर घर वापस लौट आती है। ..............................
पति परदेस से वापस लौटता है। व्याहता की गोंद में बच्चा देख कर उसके चरित्र पर उँगलियाँ उठाता है, फटकारता है किन्तु पत्नी जब उसे स्वयं उसकी दी हुई निशानियाँ दिखाती है तो वह पत्नी को गले लगा लेता है।
प्रस्तुत है एक काव्य गाथा !
रचना: पारंपरिक
स्वर: मानकेशरी पाण्डेय
देवकांति तिवारी
बरहे बरिस के रँगीले पिया,
अरे निकरि बिदेस गए - 2
हो मोरे देवरा केकरी टहलिया मैं लागउँ,
अरे जियरा बुझावौं हो -2
पहिरौ न मोरी भउजी झीन कपड़ा,
उतारहु न मोट कापड हो।
मोरी भउजी धरितिव हो,
बेड़िनिया कै रुपवा,
भइया क हेर लवतेंव -
भइया क हेर लवतेंव हो !!
गलिया की गली देवरा हेरैं हो,
कतहुँ नाही पावहिं हो -2
अरे राजा रखि लेता हमरी हो नोकरिया,
तलबिया नाही लेबै हो।
तलबिया नाही लेबै हो !!
आठ महिनवा के बीतत,
अरे नववें के लागत -2
हो पतुरिया अकुलानिन,
हो पतुरिया अकुलानिन।
हो मोरे राजा !
दै देता हमरी तलबिया,
घरा का अपने जाबै हो -2
दै देहु फाँड़े कै कटरिया,
गले कै मोहन-मलवा हो -2
अरे राजा !
दै देहु हाथे कै अँगुठिया,
घरा का अपने जाबै हो।
दै दिहें फाँड़े कै कटरिया हो,
गले कै मोहन-मलवा हो -2
अरे मोरे सखियाँ !
दै दिहें हाथे कै अँगुठिया,
पतुरिया घर जावैं हो -2
बरहें बरिस पियवा लौटें हो,
बरहिया तराँ उतरे हो -2
अरे माई !
यस सतवंती रनियवा,
कइसे कइसे राखिव हो -2
सासू बोलैं न, रहि गै हो,
ननद उठि बोलै हो -2
मोरे भइया !
आनै क जन्मा होरिलवा हो ,
त भउजी मोरा दुलारइँ हो -2
हथवा मा लिहे सूत पुनिया हो,
त धन तरपासहिं हो -2
मोरी धन !
साँच-साँच दिह्यू तू बताइ हो,
नाही त सर कटबै हो -2
चीन्हि लेहु फाँड़े कै कटरिया हो,
गले कै मोहन-मलवा हो -2
अरे साहेब !
चीन्हि लेहु हाथे कै अँगुठिया हो,
हमहिं फटकराहु हो -2
चूमहुँ न रानी तोर मुखवा हो,
चउर एस दँतवा हो -2
अरे रानी !
साथी हो मरदवा के बिचवा हो,
हमहिं छल लाइहु हो -2
यक कुल राखिउ तू नइहर,
दुसर कुल सासुर हो -2
मोरी धन !
राखिउ अपने हरि के पगड़िया
चउथ कुल आपन हो।
चउथ कुल आपन हो।।
Sunday, March 10, 2019
कर्म का फल
*⚜🚩सनातन धर्म रक्षक समिति*🚩⚜
*⛳सनातन धर्म की जय हो*⛳
*कर्मबंधन एक शिक्षाप्रद कथा,,,,,,,*
👇🏻👇🏻👇🏻
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥
भावार्थ:-जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥
एक राजा बड़ा धर्मात्मा, न्यायकारी और परमेश्वर का भक्त था। उसने ठाकुरजी का मंदिर बनवाया और एक ब्राह्मण को उसका पुजारी नियुक्त किया। वह ब्राह्मण बड़ा सदाचारी, धर्मात्मा और संतोषी था। वह राजा से कभी कोई याचना नहीं करता था, राजा भी उसके स्वभाव पर बहुत प्रसन्न था। उसे राजा के मंदिर में पूजा करते हुए बीस वर्ष गुजर गये। उसने कभी भी राजा से किसी प्रकार का कोई प्रश्न नहीं किया।
राजा के यहाँ एक लड़का पैदा हुआ। राजा ने उसे पढ़ा लिखाकर विद्वान बनाया और बड़ा होने पर उसकी शादी एक सुंदर राजकन्या के साथ करा दी। शादी करके जिस दिन राजकन्या को अपने राजमहल में लाये उस रात्रि में राजकुमारी को नींद न आयी।
वह इधर-उधर घूमने लगी जब अपने पति के पलंग के पास आयी तो क्या देखती है कि हीरे जवाहरात जड़ित मूठेवाली एक तलवार पड़ी है। जब उस राजकन्या ने देखने के लिए वह तलवार म्यान में से बाहर निकाली, तब तीक्ष्ण धारवाली और बिजली के समान प्रकाशवाली तलवार देखकर वह डर गयी व डर के मारे उसके हाथ से तलवार गिर पड़ी और राजकुमार की गर्दन पर जा लगी।
राजकुमार का सिर कट गया और वह मर गया। राजकन्या पति के मरने का बहुत शोक करने लगी। उसने परमेश्वर से प्रार्थना की कि 'हे प्रभु ! मुझसे अचानक यह पाप कैसे हो गया ?
पति की मृत्यु मेरे ही हाथों हो गयी। आप तो जानते ही हैं, परंतु सभा में मैं सत्य न कहूँगी क्योंकि इससे मेरे माता-पिता और सास-ससुर को कलंक लगेगा तथा इस बात पर कोई विश्वास भी न करेगा।'
प्रातःकाल में जब पुजारी कुएँ पर स्नान करने आया तो राजकन्या ने उसको देखकर विलाप करना शुरु किया और इस प्रकार कहने लगीः "मेरे पति को कोई मार गया।" लोग इकट्ठे हो गये और राजा साहब आकर पूछने लगेः "किसने मारा है ?"
वह कहने लगीः "मैं जानती तो नहीं कि कौन था। परंतु उसे ठाकुरजी के मंदिर में जाते देखा था" राजा समेत सब लोग ठाकुरजी के मंदिर में आये तो ब्राह्मण को पूजा करते हुए देखा। उन्होंने उसको पकड़ लिया और पूछाः "तूने राजकुमार को क्यों मारा ?"
ब्राह्मण ने कहाः "मैंने राजकुमार को नहीं मारा। मैंने तो उनका राजमहल भी नहीं देखा है। इसमें ईश्वर साक्षी हैं। बिना देखे किसी पर अपराध का दोष लगाना ठीक नहीं।"
ब्राह्मण की तो कोई बात ही नहीं सुनता था। कोई कुछ कहता था तो कोई कुछ.... राजा के दिल में बार-बार विचार आता था कि यह ब्राह्मण निर्दोष है परंतु बहुतों के कहने पर राजा ने ब्राह्मण से कहाः
"मैं तुम्हें प्राणदण्ड तो नहीं देता लेकिन जिस हाथ से तुमने मेरे पुत्र को तलवार से मारा है, तेरा वह हाथ काटने का आदेश देता हूँ।" ऐसा कहकर राजा ने उसका हाथ कटवा दिया।
इस पर ब्राह्मण बड़ा दुःखी हुआ और राजा को अधर्मी जान उस देश को छोड़कर चला गया। वहाँ वह खोज करने लगा कि कोई विद्वान ज्योतिषी मिले तो बिना किसी अपराध हाथ कटने का कारण उससे पूछूँ। किसी ने उसे बताया कि काशी में एक विद्वान ज्योतिषी रहते हैं।
तब वह उनके घर पर पहुँचा। ज्योतिषी कहीं बाहर गये थे, उसने उनकी धर्मपत्नी से पूछाः "माताजी ! आपके पति ज्योतिषी जी महाराज कहाँ गये हैं ?" तब उस स्त्री ने अपने मुख से अयोग्य, असह्य दुर्वचन कहे, जिनको सुनकर वह ब्राह्मण हैरान हुआ और मन ही मन कहने लगा कि "मैं तो अपना हाथ कटने का कारण पूछने आया था, परंतु अब इनका ही हाल पहले पूछूँगा।"
इतने में ज्योतिषी आ गये। घर में प्रवेश करते ही ब्राह्मणी ने अनेक दुर्वचन कहकर उनका तिरस्कार किया। परंतु ज्योतिषी जी चुप रहे और अपनी स्त्री को कुछ भी नहीं कहा। तदनंतर वे अपनी गद्दी पर आ बैठे। ब्राह्मण को देखकर ज्योतिषी ने उनसे कहाः "कहिये, ब्राह्मण देवता ! कैसे आना हुआ ?"
"आया तो था अपने बारे में पूछने के लिए परंतु पहले आप अपना हाल बताइये कि आपकी पत्नी अपनी जुबान से आपका इतना तिरस्कार क्यों करती है ? जो किसी से भी नहीं सहा जाता और आप सहन कर लेते हैं, इसका कारण है ?"
"यह मेरी स्त्री नहीं, मेरा कर्म है। दुनिया में जिसको भी देखते हो अर्थात् भाई, पुत्र, शिष्य, पिता, गुरु, सम्बंधी - जो कुछ भी है, सब अपना कर्म ही है। यह स्त्री नहीं, मेरा किया हुआ कर्म ही है और यह भोगे बिना कटेगा नहीं।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतेरपि॥
'अपना किया हुआ जो भी कुछ शुभ-अशुभ कर्म है, वह अवश्य ही भोगना पड़ता है। बिना भोगे तो सैंकड़ों-करोड़ों कल्पों के गुजरने पर भी कर्म नहीं टल सकता।' इसलिए मैं अपने कर्म खुशी से भोग रहा हूँ और अपनी स्त्री की ताड़ना भी नहीं करता, ताकि आगे इस कर्म का फल न भोगना पड़े।"
"महाराज ! आपने क्या कर्म किया था ?"
"सुनिये, पूर्वजन्म में मैं कौआ था और मेरी स्त्री गधी थी। इसकी पीठ पर फोड़ा था, फोड़े की पीड़ा से यह बड़ी दुःखी थी और कमजोर भी हो गयी थी। मेरा स्वभाव बड़ा दुष्ट था, इसलिए मैं इसके फोड़े में चोंच मारकर इसे ज्यादा दुःखी करता था। जब दर्द के कारण यह कूदती थी तो इसकी फजीहत देखकर मैं खुश होता था। मेरे डर के कारण यह सहसा बाहर नहीं निकलती थी किंतु मैं इसको ढूँढता फिरता था।
यह जहाँ मिले वहीं इसे दुःखी करता था। आखिर मेरे द्वारा बहुत सताये जाने पर त्रस्त होकर यह गाँव से दस-बारह मील दूर जंगल में चली गयी। वहाँ गंगा जी के किनारे सघन वन में हरा-हरा घास खाकर और मेरी चोटों से बचकर सुखपूर्वक रहने लगी।
लेकिन मैं इसके बिना नहीं रह सकता था। इसको ढूँढते-ढूँढते मैं उसी वन में जा पहुँचा और वहाँ इसे देखते ही मैं इसकी पीठ पर जोर-से चोंच मारी तो मेरी चोंच इसकी हड्डी में चुभ गयी। इस पर इसने अनेक प्रयास किये, फिर भी चोंच न छूटी। मैंने भी चोंच निकालने का बड़ा प्रयत्न किया मगर न निकली।
'पानी के भय से ही यह दुष्ट मुझे छोड़ेगा।' ऐसा सोचकर यह गंगाजी में प्रवेश कर गयी परंतु वहाँ भी मैं अपनी चोंच निकाल न पाया। आखिर में यह बड़े प्रवाह में प्रवेश कर गयी। गंगा का प्रवाह तेज होने के कारण हम दोनों बह गये और बीच में ही मर गये।
तब गंगा जी के प्रभाव से यह तो ब्राह्मणी बनी और मैं बड़ा भारी ज्योतिषी बना। अब वही मेरी स्त्री हुई। जो मेरे मरणपर्यन्त अपने मुख से गाली निकालकर मुझे दुःख देगी और मैं भी अपने पूर्वकर्मों का फल समझकर सहन करता रहूँगा, इसका दोष नहीं मानूँगा क्योंकि यह किये हुए कर्मों का ही फल है। इसलिए मैं शांत रहता हूँ। अब अपना प्रश्न पूछो।"
ब्राह्मण ने अपना सब समाचार सुनाया और पूछाः "अधर्मी पापी राजा ने मुझ निरपराध का हाथ क्यों कटवाया ?"
ज्योतिषीः "राजा ने आपका हाथ नहीं कटवाया, आपके कर्म ने ही आपका हाथ कटवाया है।"
"किस प्रकार ?"
"पूर्वजन्म में आप एक तपस्वी थे और राजकन्या गौ थी तथा राजकुमार कसाई था। वह कसाई जब गौ को मारने लगा, तब गौ बेचारी जान बचाकर आपके सामने से जंगल में भाग गयी। पीछे से कसाई आया और आप से पूछा कि "इधर कोई गाय तो नहीं गया है ?"
आपने प्रण कर रखा था कि 'झूठ नहीं बोलूँगा।' अतः जिस तरफ गौ गयी थी, उस तरफ आपने हाथ से इशारा किया तो उस कसाई ने जाकर गौ को मार डाला।
गंगा के किनारे वह उसकी चमड़ी निकाल रहा था, इतने में ही उस जंगल से शेर आया और गौ एवं कसाई दोनों को खाकर गंगाजी के किनारे ही उनकी हड्डियाँ उसमें बह गयीं। गंगाजी के प्रताप से कसाई को राजकुमार और गौ को राजकन्या का जन्म मिला एवं पूर्वजन्म के किये हुए उस कर्म ने एक रात्रि के लिए उन दोनों को इकट्ठा किया।
क्योंकि कसाई ने गौ को हंसिये से मारा था, इसी कारण राजकन्या के हाथों अनायास ही तलवार गिरने से राजकुमार का सिर कट गया और वह मर गया। इस तरह अपना फल देकर कर्म निवृत्त हो गया। तुमने जो हाथ का इशारा रूप कर्म किया था, उस पापकर्म ने तुम्हारा हाथ कटवा दिया है।
इसमें तुम्हारा ही दोष है किसी अन्य का नहीं, ऐसा निश्चय कर सुखपूर्वक रहो।"
कितना सहज है ज्ञानसंयुक्त जीवन ! यदि हम इस कर्मसिद्धान्त को मान लें और जान लें तो पूर्वकृत घोर से घोर कर्म का फल भोगते हुए भी हम दुःखी नहीं होंगे बल्कि अपने चित्त की समता बनाये रखने में सफल होंगे।
भगवान श्रीकृष्ण इस समत्व के अभ्यास को ही 'समत्व योग' संबोधित करते हैं, जिसमें दृढ़ स्थिति प्राप्त होने पर मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।🌸🍃🌸🍃🌸🍃🙏🙏🌸🌸
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*जय श्री राम⛳⛳*
*वंदे मातरम⛳⛳*
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