Tuesday, February 23, 2016

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ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥

तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥

तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥

दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥

न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥

पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥

बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥

बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥

बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥

बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥

बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥

मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥

माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥

भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥

मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥

माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥

मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥

ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥

या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥

राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥

संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥

साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥

साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥

संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥

साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥

लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं ।
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥

हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह ।
सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥

ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार ।
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥

ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह ।
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥

क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥

राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥

बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार ।
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥

ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥

सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥

कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥

तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥

राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥

कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥

कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥

लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥

बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥

यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥

अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥

इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥

अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥

जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥

कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥

परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥

पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥

हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।
काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥

जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥

पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।
आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥

दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥

भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥

कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥

कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥

कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥

जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥

पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥

कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥

भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि ।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥

परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥

परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥

ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥

कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥

स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥

इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥

ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥

कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।
दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥

कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥

तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥

चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥ 

Saturday, February 13, 2016

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पाण्डव पाँच भाई थे जिनके नाम हैं -
1. युधिष्ठिर 2. भीम 3. अर्जुन
4. नकुल। 5. सहदेव
 
( इन पांचों के अलावा , महाबली कर्ण भी कुंती के ही पुत्र थे , परन्तु उनकी गिनती पांडवों में नहीं की जाती है )
 
यहाँ ध्यान रखें किपाण्डु के उपरोक्त पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन
की माता कुन्ती थीं ……तथा , नकुल और सहदेव की माता माद्री थी
 
वहीँ …. धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र…..
कौरव कहलाए जिनके नाम हैं -
1. दुर्योधन 2. दुःशासन 3. दुःसह
4. दुःशल 5. जलसंघ 6. सम
7. सह 8. विंद 9. अनुविंद
10. दुर्धर्ष 11. सुबाहु। 12. दुषप्रधर्षण
13. दुर्मर्षण। 14. दुर्मुख 15. दुष्कर्ण
16. विकर्ण 17. शल 18. सत्वान
19. सुलोचन 20. चित्र 21. उपचित्र
22. चित्राक्ष 23. चारुचित्र 24. शरासन
25. दुर्मद। 26. दुर्विगाह 27. विवित्सु
28. विकटानन्द 29. ऊर्णनाभ 30. सुनाभ
31. नन्द। 32. उपनन्द 33. चित्रबाण
34. चित्रवर्मा 35. सुवर्मा 36. दुर्विमोचन
37. अयोबाहु 38. महाबाहु 39. चित्रांग 40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग 42. भीमबल
43. बालाकि 44. बलवर्धन 45. उग्रायुध
46. सुषेण 47. कुण्डधर 48. महोदर
49. चित्रायुध 50. निषंगी 51. पाशी
52. वृन्दारक 53. दृढ़वर्मा 54. दृढ़क्षत्र
55. सोमकीर्ति 56. अनूदर 57. दढ़संघ 58. जरासंघ 59. सत्यसंघ 60. सद्सुवाक
61. उग्रश्रवा 62. उग्रसेन 63. सेनानी
64. दुष्पराजय 65. अपराजित 
66. कुण्डशायी 67. विशालाक्ष
68. दुराधर 69. दृढ़हस्त 70. सुहस्त
71. वातवेग 72. सुवर्च 73. आदित्यकेतु
74. बह्वाशी 75. नागदत्त 76. उग्रशायी
77. कवचि 78. क्रथन। 79. कुण्डी 
80. भीमविक्र 81. धनुर्धर 82. वीरबाहु
83. अलोलुप 84. अभय 85. दृढ़कर्मा
86. दृढ़रथाश्रय 87. अनाधृष्य
88. कुण्डभेदी। 89. विरवि
90. चित्रकुण्डल 91. प्रधम
92. अमाप्रमाथि 93. दीर्घरोमा
94. सुवीर्यवान 95. दीर्घबाहु
96. सुजात। 97. कनकध्वज
98. कुण्डाशी 99. विरज
100. युयुत्सु
 
( इन 100 भाइयों के अलावा कौरवों की एक बहनभी थीजिसका नाम""दुशाला""था,
जिसका विवाह"जयद्रथ"सेहुआ था )
 
"श्री मद्-भगवत गीता"के बारे में-
 
. किसको किसने सुनाई?
.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई। 
 
. कब सुनाई?
.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।
 
. भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?
.- रविवार के दिन।
 
. कोनसी तिथि को?
.- एकादशी 
 
. कहा सुनाई?
.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।
 
. कितनी देर में सुनाई?
.- लगभग 45 मिनट में
 
. क्यू सुनाई?
.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।
 
. कितने अध्याय है?
.- कुल 18 अध्याय
 
. कितने श्लोक है?
.- 700 श्लोक
 
. गीता में क्या-क्या बताया गया है?
.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है। 
 
. गीता को अर्जुन के अलावा 
और किन किन लोगो ने सुना?
.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने
 
. अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
.- भगवान सूर्यदेव को
 
. गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
.- उपनिषदों में
 
. गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?
.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।
 
. गीता का दूसरा नाम क्या है?
.- गीतोपनिषद
 
. गीता का सार क्या है?
.- प्रभु श्रीकृष्ण की शरण लेना
 
. गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
.- श्रीकृष्ण जी ने- 574
अर्जुन ने- 85 
धृतराष्ट्र ने- 1
संजय ने- 40.
 
अपनी युवा-पीढ़ी को गीता जी के बारे में जानकारी पहुचाने हेतु इसे ज्यादा से ज्यादा शेअर करे। धन्यवाद
 
 
अधूरा ज्ञान खतरना होता है।
 
33 करोड नहीँ 33 कोटी देवी देवता हैँ हिँदू
धर्म मेँ।
 
कोटि = प्रकार। 
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है,
 
कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता।
 
हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं...
 
कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मे :-
 
12 प्रकार हैँ
आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,
शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष,
सविता, तवास्था, और विष्णु...!
 
8 प्रकार हे :-
वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
 
11 प्रकार है :- 
रुद्र: ,हर,बहुरुप, त्रयँबक,
अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,
रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।
 
एवँ
दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।
 
कुल :- 12+8+11+2=33 कोटी 
 
अगर कभी भगवान् के आगे हाथ जोड़ा है
तो इस जानकारी को अधिक से अधिक
लोगो तक पहुचाएं।
 
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
हिन्दु हाेने के नाते जानना ज़रूरी है
अपनी भारत की संस्कृति 
को पहचाने.
ज्यादा से ज्यादा
लोगो तक पहुचाये
खासकर अपने बच्चो को बताए 
क्योकि ये बात उन्हें कोई नहीं बताएगा...
 
📜😇 दो पक्ष-
 
कृष्ण पक्ष
शुक्ल पक्ष !
 
📜😇 तीन ऋण -
 
देव ऋण
पितृ ऋण
ऋषि ऋण !
 
📜😇 चार युग -
 
सतयुग
त्रेतायुग ,
द्वापरयुग
कलियुग !
 
📜😇 चार धाम -
 
द्वारिका
बद्रीनाथ ,
जगन्नाथ पुरी
रामेश्वरम धाम !
 
📜😇 चारपीठ -
 
शारदा पीठ ( द्वारिका )
ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम
गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) , 
शृंगेरीपीठ !
 
📜😇 चार वेद-
 
ऋग्वेद
अथर्वेद
यजुर्वेद
सामवेद !
 
📜😇 चार आश्रम -
 
ब्रह्मचर्य
गृहस्थ
वानप्रस्थ
संन्यास !
 
📜😇 चार अंतःकरण -
 
मन
बुद्धि
चित्त
अहंकार !
 
📜😇 पञ्च गव्य -
 
गाय का घी
दूध
दही ,
गोमूत्र
गोबर !
 
📜😇 पञ्च देव -
 
गणेश
विष्णु
शिव
देवी ,
सूर्य !
 
📜😇 पंच तत्त्व -
 
पृथ्वी ,
जल
अग्नि
वायु
आकाश !
 
📜😇 छह दर्शन -
 
वैशेषिक
न्याय
सांख्य ,
योग
पूर्व मिसांसा
दक्षिण मिसांसा !
 
📜😇 सप्त ऋषि -
 
विश्वामित्र ,
जमदाग्नि ,
भरद्वाज
गौतम
अत्री
वशिष्ठ और कश्यप
 
📜😇 सप्त पुरी -
 
अयोध्या पुरी ,
मथुरा पुरी
माया पुरी ( हरिद्वार ) , 
काशी ,
कांची 
( शिन कांची - विष्णु कांची ) , 
अवंतिका और 
द्वारिका पुरी !
 
📜😊 आठ योग
 
यम
नियम
आसन ,
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान एवं 
समािध !
 
📜😇 आठ लक्ष्मी -
 
आग्घ
विद्या
सौभाग्य ,
अमृत
काम
सत्य
भोग ,एवं 
योग लक्ष्मी !
 
📜😇 नव दुर्गा --
 
शैल पुत्री
ब्रह्मचारिणी ,
चंद्रघंटा
कुष्मांडा
स्कंदमाता
कात्यायिनी ,
कालरात्रि
महागौरी एवं 
सिद्धिदात्री !
 
📜😇 दस दिशाएं -
 
पूर्व
पश्चिम
उत्तर
दक्षिण ,
ईशान
नैऋत्य
वायव्य
अग्नि 
आकाश एवं 
पाताल !
 
📜😇 मुख्य ११ अवतार -
 
 मत्स्य
कच्छप
वराह ,
नरसिंह
वामन
परशुराम ,
श्री राम
कृष्ण
बलराम
बुद्ध
एवं कल्कि !
 
📜😇 बारह मास
 
चैत्र
वैशाख
ज्येष्ठ ,
अषाढ
श्रावण
भाद्रपद
अश्विन
कार्तिक ,
मार्गशीर्ष
पौष
माघ
फागुन !
 
📜😇 बारह राशी
 
मेष
वृषभ
मिथुन ,
कर्क
सिंह
कन्या
तुला
वृश्चिक
धनु
मकर
कुंभ
कन्या !
 
📜😇 बारह ज्योतिर्लिंग
 
सोमनाथ ,
मल्लिकार्जुन ,
महाकाल
ओमकारेश्वर
बैजनाथ
रामेश्वरम ,
विश्वनाथ
त्र्यंबकेश्वर
केदारनाथ
घुष्नेश्वर ,
भीमाशंकर ,
नागेश्वर !
 
📜😇 पंद्रह तिथियाँ
 
प्रतिपदा ,
द्वितीय ,
तृतीय ,
चतुर्थी
पंचमी
षष्ठी
सप्तमी
अष्टमी
नवमी ,
दशमी
एकादशी
द्वादशी
त्रयोदशी
चतुर्दशी
पूर्णिमा
अमावास्या !
 
📜😇 स्मृतियां
 
मनु
विष्णु
अत्री
हारीत ,
याज्ञवल्क्य ,
उशना
अंगीरा
यम
आपस्तम्ब
सर्वत ,
कात्यायन
ब्रहस्पति
पराशर
व्यास
शांख्य ,
लिखित
दक्ष
शातातप
वशिष्ठ !