Friday, October 23, 2015

List of Villages in Meja Tahsil


List of Villages in Meja Tahsil

Wednesday, September 23, 2015

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।


सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।


जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।


निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।।

Saturday, August 29, 2015

हिन्दू माह और छः ऋतुएँ और आठ दिशाएँ

हिन्दू माह
चैत्र (चैत)
वैशाख (बैसाख)
ज्येष्ठ (जेठ)
आषाढ़
श्रावण (सावन)
भाद्रपक्ष (भादों)
आश्विन (क्वार)
कार्तिक
मार्गशीष (अगहन)
पौष
माघ
फाल्गुन

छः ऋतुएँ

वसंत
ग्रीष्म
वर्षा
शरद
हेमंत
शिशिर

आठ दिशाएँ

पूर्व
ईशान
उत्तर
वायव्य
पश्चिम
नैऋत्य
दक्षिण
आग्नेय

संस्कृत सुभाषित के हिन्दी अर्थ हैं।

सुभाषित शब्द "सु" और "भाषित" के मेल से बना है जिसका अर्थ है "सुन्दर भाषा में कहा गया"। संस्कृत के सुभाषित जीवन के दीर्घकालिक अनुभवों के भण्डार हैं।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥११॥


"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।

क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥१२॥


प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए, क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।

अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥१३॥


तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।

क्षुध् र्तृट् आशाः कुटुम्बन्य मयि जीवति न अन्यगाः।
तासां आशा महासाध्वी कदाचित् मां न मुञ्चति॥१४॥


भूख, प्यास और आशा मनुष्य की पत्नियाँ हैं जो जीवनपर्यन्त मनुष्य का साथ निभाती हैं। इन तीनों में आशा महासाध्वी है क्योंकि वह क्षणभर भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती, जबकि भूख और प्यास कुछ कुछ समय के लिए मनुष्य का साथ छोड़ देते हैं।

कुलस्यार्थे त्यजेदेकम् ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥१५॥


कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।

नाक्षरं मंत्रहीतं नमूलंनौधिम्।
अयोग्य पुरुषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः॥१६॥


ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र के लिए प्रयोग न किया जा सके, ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है जिसका औषधि के लिए प्रयोग न किया जा सके और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसका सदुपयोग के लिए प्रयोग किया जा सके, किन्तु ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं जो उनका सदुपयोग करना जानते हों।

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥१७॥


"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥१८॥


आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥१९॥


यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः॥२०॥


सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥२१॥

(वाल्मीकि रामायण)

हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।

मरणानतानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संसकारो ममापेष्य यथा तव॥२२॥

(वाल्मीकि रामायण)

किसी की मृत्यु हो जाने के बाद उससे बैर समाप्त हो जाता है, मुझे अब इस (रावण) से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। अतः तुम अब इसका विधिवत अन्तिम संस्कार करो।

काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥२३॥


बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है।

तैलाद् रक्षेत् जलाद् रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात्।
मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकम्॥२४॥


एक पुस्तक कहता है कि मेरी तेल से रक्षा करो (तेल पुस्तक में दाग छोड़ देता है), मेरी जल से रक्षा करो (पानी पुस्तक को नष्ट कर देता है), मेरी शिथिल बंधन से रक्षा करो (ठीक से बंधे न होने पर पुस्तक के पृष्ठ बिखर जाते हैं) और मुझे कभी किसी मूर्ख के हाथों में मत सौंपो।

श्रोतं श्रुतनैव न तु कुण्डलेन दानेन पार्णिन तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणाम् परोपकारैर्न तु चंदनेन॥२५॥


कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है, हाथ की शोभा कंकण से नहीं बल्कि दान देने से है और काया (शरीर) चन्दन के लेप से दिव्य नहीं होता बल्कि परोपकार करने से दिव्य होता है।

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्यां हि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥२६॥


भाषाओं में सर्वाधिक मधुर भाषा गीर्वाणभारती अर्थात देवभाषा (संस्कृत) है, संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक मधुर काव्य हैं और काव्यों में सर्वाधिक मधुर सुभाषित हैं।

उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्त मरणं तृणम्।
विरक्तस्य तृणं भार्या निस्पृहस्य तृणं जगत्॥२७॥


उदार मनुष्य के लिए धन तृण के समान है, शूरवीर के लिए मृत्यु तृण के समान है, विरक्त के लिए भार्या तृण के समान है और निस्पृह (कामनाओं से रहित) मनुष्य के लिए यह जगत् तृण के समान है।

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते॥२८॥


राजत्व प्राप्ति और विद्वत्व प्राप्ति की किंचित मात्र भी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा की पूजा केवल उसके अपने देश में ही होती है जबकि विद्वान की पूजा सर्वत्र (पूरे विश्व में) होती है।

दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम्॥२९॥


दुर्जन, जो कि कोयले के समान होते हैं, से प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है।

चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रिया।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वान्हिना गृहे॥३०॥


जिस प्रकार से घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना युक्तिपूर्ण (सही) कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है। (किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।)

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः॥३१॥


जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है, उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है।

स्थानभ्रष्टाः न शोभन्ते दन्ताः केशाः नखा नराः।
इति विज्ञाय मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत्॥३२॥


यदि मनुष्य के दांत, केश, नख इत्यादि अपना स्थान त्याग कर दूसरे स्थान पर चले जाएँ तो वे कदापि शोभा नहीं नहीं देंगे (अर्थात् मनुष्य की काया विकृति प्रतीत होने लगेगी)। इसी प्रकार से विज्ञजन के मतानुसार किसी व्यक्ति को स्वस्थान (अपना गुण, सत्कार्य इत्यादि) का त्याग नहीं करना चाहिए।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखम्॥३३॥


आलसी को विद्या कहाँ? (आलसी व्यक्ति विद्या प्राप्ति नहीं कर सकता।) विद्याहीन को धन कहाँ? (विद्याहीन व्यक्ति धन नहीं कमा सकता।) धनहीन को मित्र कहाँ? (धन के बिना मित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती।) मित्रहीन को सुख कहाँ? (मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।)

उदये सविता रक्तो रक्तशचास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महामेकरूपता॥३४॥

(महाभारत)

जिस प्रकार से सूर्य सुबह उगते तथा शाम को अस्त होते समय दोनों ही समय में लाल रंग का होता है (अर्थात् दोनों ही संधिकालों में एक समान रहता है), उसी प्रकार महान लोग अपने अच्छे और बुरे दोनों ही समय में एक जैसे एक समान (धीर बने) रहते हैं।

शान्तितुल्यं तपो नास्ति तोषान्न परमं सुखम्।
नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥३५॥


शान्ति जैसा कोई तप (यहाँ तप का अर्थ उपलब्धि समझना चाहिए) नहीं है, सन्तोष जैसा कोई सुख नहीं है (कहा भी गया है "संतोषी सदा सुखी), कामना जैसी कोई ब्याधि नहीं है और दया जैसा कोई धर्म नहीं है।

सर्वोपनिषदो गावः दोग्धाः गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥३६॥


समस्त उपनिषद गाय हैं, श्री कृष्ण उन गायों के रखवाले हैं, पार्थ (अर्जुन) बछड़ा है जो उनके दूध का पान करता है और गीतामृत ही उनका दूध है। (अर्थात् समस्त उपनिषदों का सार गीता ही है।)

हंसो शुक्लः बको शुक्लः को भेदो बकहंसयो।
नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसः बको बकः॥३७॥


हंस भी सफेद रंग का होता है और बगुला भी सफेद रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? जिसमें दूध और पानी अलग कर देने का विवेक होता है वही हंस होता है और विवेकहीन बगुला बगुला ही होता है।

काको कृष्णः पिको कृष्णः को भेदो पिककाकयो।
वसन्तकाले संप्राप्ते काको काकः पिको पिकः॥३८॥


कोयल भी काले रंग की होती है और कौवा भी काले रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? वसन्त ऋतु के आगमन होते ही पता चल जाता है कि कोयल कोयल होती है और कौवा कौवा होता है।

न चौर्यहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत व नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम॥४१॥


न तो इसे चोर चुरा सकता है, न ही राजा इसे ले सकता है, न ही भाई इसका बँटवारा कर सकता है और न ही इसका कंधे पर बोझ होता है; इसे खर्च करने पर सदा इसकी वृद्धि होती है, ऐसा विद्याधन सभी धनों में प्रधान है।

हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना॥४२॥


जो चोरों दिखाई नहीं पड़ता, किसी को देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, विद्या के अतिरिक्त ऐसा अन्य कौन सा द्रव्य है?

विद्या नाम नरस्य कीर्तिर्तुला भाग्यक्षये चाश्रयो।
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा॥४३॥
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्।
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु॥४४॥


विद्या मनुष्य की अनुपम कीर्ति है, भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, विद्या कामधेनु है, विरह में रति समान है, विद्या ही तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल की महिमा है, बिना रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन!

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्॥४५॥


विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता प्राप्त होती है, पात्रता से धन प्राप्त होता है, धन से धर्म की प्राप्ति होती है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।

विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम्॥४६॥


विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य के चित्त को नहीं हरते? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता? (अर्थात् विद्या और विनय का संयोग सोने और मणि के संयोग के समान है।)

विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्॥४७॥


कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा है, कोकिला का रुप स्वर है, और स्त्री का रुप पातिव्रत्य है ।

कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु॥४८॥


यत्न किस के लिए करना चाहिए? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार के लिए। अनादर किसका करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन का।

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥४९॥


रुपसम्पन्न, यौवनसम्पन्न और विशाल कुल में उत्पन्न व्यक्ति भी विद्याहीन होने पर, सुगंधरहित केसुड़े के फूल की भाँति, शोभा नहीं देता।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥५०॥


अपने बालक को न पढ़ाने वाले माता व पिता अपने ही बालक के शत्रु हैं, क्योंकि हंसो के बीच बगुले की भाँति, विद्याहीन मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहीं देता।

दुर्जनः प्रियवादीति नैतद् विश्वासकारणम्।
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम्॥३९॥


दुर्जन व्यक्ति यदि प्रिय (मधुर लगने वाली) वाणी भी बोले तो भी उसका विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि उसे जबान पर (प्रिय वाणी रूपी) मधु होने पर भी हृदय में हलाहल (विष) ही भरा होता है।

सर्पदुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दशती कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे॥४०॥


(यदि साँप और दुष्ट की तुलना करें तो) साँप दुष्ट से अच्छा है क्योंकि साँप कभी-कभार ही डँसता है पर दुष्ट पग-पग पर (प्रत्येक समय) डँसता है।

वरं एको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि।
एकश्चंद्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च॥५१॥


सौ मूर्ख पुत्र होने की अपेक्षा एक गुणवान पुत्र होना श्रेष्ठ है, अन्धकार का नाश केवल एक चन्द्रमा ही कर देता है पर तारों के समूह नहीं कर सकते।

विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेष धनं मतिः।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम्॥५२॥


परदेस में रहने के लिए विद्या ही धन है, व्यसनी व्यक्ति के लिए चातुर्य ही धन है, परलोक की कामना करने वाले के लिए धर्म ही धन हैं किन्तु शील (सदाचार) सर्वत्र (समस्त स्थानों के लिए) ही धन है।

अल्पानामपि वस्तूनां संहति कार्यसाधिका।
तृणैर्गुत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः॥५३॥


इस सुभाषित में यह सन्देश दिया गया है कि छोटी-छोटी बातों के समायोजन से बड़ा कार्य सिद्ध हो जाता है जैसे कि तृणों को जोड़कर बनाई गई डोर हाथी को बाँध देता है।

अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनात् अनादरो भवति।
मलये भिल्ला पुरन्ध्री चन्दनतरुकाष्ठमं इन्धनं कुरुते॥५४॥


अतिपरिचय (बहुत अधिक नजदीकी) अवज्ञा और किसी के घर बार बार जाना अनादर का कारण बन जाता है जैसे कि मलय पर्वत की भिल्लनी चंदन के लकड़ी को ईंधन के रूप में जला देती है।

इसी बात को कवि वृन्द ने इस प्रकार से कहा हैः

अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चन्दन देति जराय॥


सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः।
सर्पः शाम्यति मन्त्रैश्च दुर्जनः केन शाम्यति॥५५॥


साँप भी क्रूर होता है और दुष्ट भी क्रूर होता है किन्तु दुष्ट साँप से अधिक क्रूर होता है क्योंकि साँप के विष का तो मन्त्र से शमन हो सकता है किन्तु दुष्ट के विष का शमन किसी प्रकार से नहीं हो सकता।

लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्॥५६॥


पाँच वर्ष की अवस्था तक पुत्र का लाड़ करना चाहिए, दस वर्ष की अवस्था तक (उसी की भलाई के लिए) उसे ताड़ना देना चाहिए और उसके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेने पर उससे मित्रवत व्यहार करना चाहिए।

सम्पूर्ण कुंभो न करोति शब्दं अर्धोघटो घोषमुपैति नूनम्।
विद्वान कुलीनो न करोति गर्वं गुणैर्विहीना बहु जल्पयंति॥५७॥


जिस प्रकार से आधा भरा हुआ घड़ा अधिक आवाज करता है पर पूरा भरा हुआ घड़ा जरा भी आवाज नहीं करता उसी प्रकार से विद्वान अपनी विद्वता पर घमण्ड नहीं करते जबकि गुणविहीन लोग स्वयं को गुणी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।

मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम्।
दम्पत्यो कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता॥५८॥


जहाँ पर मूर्खो की पूजा नहीं होती (अर्थात् उनकी सलाह नहीं मानी जाती), धान्य को भलीभाँति संचित करके रखा जाता है और पति पत्नी के मध्य कलह नहीं होता वहाँ लक्ष्मी स्वयं आ जाती हैं।

मृगाः मृगैः संगमुपव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरंगास्तुरंगैः।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधयः सुधीभिः समानशीलव्यसनेष सख्यम्॥५९॥


हिरण हिरण का अनुरण करता है, गाय गाय का अनुरण करती है, घोड़ा घोड़े का अनुरण करता है, मूर्ख का अनुरण करता है और बुद्धिमान का अनुरण करता है। मित्रता समान गुण वालों में ही होती है।

शतेषु जायते शूरः सहस्त्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्त्रेष दाता भवति वान वा॥६०॥


सौ लोगों में एक शूर पैदा होता है, हजार लोगों में एक पण्डित पैदा होता है, दस हजार लोगों में एक वक्ता पैदा होता है और दाता कोई बिरला ही पैदा होता है।

अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम्।
अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥६१॥

अन्न का दान परम दान है और विद्या का दान भी परम दान दान है किन्तु दान में अन्न प्राप्त करने वाली कुछ क्षणों के लिए ही तृप्ति प्राप्त होती है जबकि दान में विद्या प्राप्त करने वाला (अपनी विद्या से आजीविका कमा कर) जीवनपर्यन्त तृप्ति प्राप्त करता है।

इस पर अंग्रेजी में भी एक कहावत इस प्रकार से हैः

“Give a man a fish; you have fed him for today. Teach a man to fish; and you have fed him for a lifetime”

मूर्खस्य पंच चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधस्य दृढ़वादश्च परवाक्येषवनादरः॥६२॥

मूर्खों के पाँच लक्षण होते हैं - गर्व (अहंकार), दुर्वचन (कटु वाणी बोलना), क्रोध, कुतर्क और दूसरों के कथन का अनादर।

नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्ककाष्ठश्च मूर्खश्च न नमन्ति कदाचन॥६३॥

जिस प्रकार से फलों से लदी हुई वृक्ष की डाल झुक जाती है उसी प्रकार से गुणीजन सदैव विनम्र होते हैं किन्तु मूर्ख उस सूखी लकड़ी के समान होता है जो कभी नहीं झुकता।

वृश्चिकस्य विषं पृच्छे मक्षिकायाः मुखे विषम्।
तक्षकस्य विषं दन्ते सर्वांगे दुर्जनस्य तत्॥६४॥

बिच्छू का विष पीछे (उसके डंक में) होता है, मक्षिका (मक्खी) का विष उसके मुँह में होता है, तक्षक (साँप) का विष उसके दाँत में होता है किन्तु दुर्जन मनुष्य के सारे अंग विषैले होते हैं।

विकृतिं नैव गच्छन्ति संगदोषेण साधवः।
आवेष्टितं महासर्पैश्चनदनं न विषायते॥६५॥

जिस प्रकार से चन्द के वृक्ष से विषधर के लिपटे रहने पर भी वह विषैला नहीं होता उसी प्रकार से संगदोष (कुसंगति) होने पर भी साधुजनों के गुणों में विकृति नहीं आती।

घटं भिन्द्यात् पटं छिनद्यात् कुर्याद्रासभरोहण।
येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत्॥६६॥

घड़े तोड़कर, कपड़े फाड़कर या गधे पर सवार होकर, चाहे जो भी करना पड़े, येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहिए। (ऐसा कुछ लोगों का सिद्धान्त होता है।)

तृणानि नोन्मूलयति प्रभन्जनो मृदूनि नीचैः प्रणतानि सर्वतः।
स्वभाव एवोन्नतचेतसामयं महान्महत्स्वेव करोति विक्रम॥६७॥

जिस प्रकार से प्रचण्ड आंधी बड़े बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ देता है किन्तु छोटे से तृण को नहीं उखाड़ता उसी प्रकार से पराक्रमीजन अपने बराबरी के लोगों पर ही पराक्रम प्रदर्शित करते हैं और निर्बलों पर दया करते हैं।

प्रदोषे दीपकश्चन्द्रः प्रभाते दीपको रविः।
त्रैलोक्ये दीपको धर्मः सुपुत्र कुलदीपकः॥६८॥

शाम का दीपक चन्द्रमा होता है, सुबह का दीपक सूर्य होता है, तीनों लोकों का दीपक धर्म होता है और कुल का दीपक सुपुत्र होता है।

अनारम्भो हि कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम्।
प्रारब्धस्यान्तगमनं द्वितीयं बुद्धिलक्षणम्॥६९॥

(आलसी लोगों की) बुद्धि के दो लक्षण होते हैं - प्रथम कार्य को आरम्भ ही नहीं करना और द्वितीय भाग्य के भरोसे बैठे रहना।

परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै।
विसमरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुस्थिते॥७०॥

दूसरों के कष्ट में पड़ने पर हम उन्हें जो उपदेश देते हैं, स्वयं कष्ट में पड़ने पर उन्हीं उपदेशों को भूल जाते हैं।

गुणवन्तः क्लिश्यन्ते प्रायेण भवन्ति निर्गुणाः सुखिनः।
बन्धनमायान्ति शुकाः यथेष्टसंचारिणः काकाः॥७१॥


गुणवान को क्लेश भोगना पड़ता है और निर्गुण सुखी रहता है जैसे कि तोता अपनी सुन्दरता के गुण के कारण पिंजरे में डाल दिया जाता है किन्तु कौवा आकाश में स्वच्छन्द विचरण करता है।

नास्ति विद्यासमं चक्षुः नास्ति सत्यसमं तपः।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्॥७२॥


विद्या के समान कोई चक्षु (आँख) नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग (वासना, कामना) के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है।

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सुहृज्जनाश्च।
तमर्शवन्तं पुराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुषस्य बन्धुः॥७३॥


मनुष्य के धनहीन हो जाने पर पत्नी, पुत्र, मित्र, निकट सम्बन्धी आदि सभी उसका त्याग कर देते हैं और उसके धनवान बन जाने पर वे सभी पुनः उसके आश्रय में आ जाते हैं। इस लोक में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

कुसुमं वर्णसंपन्नं गन्धहीनं न शोभते।
न शोभते क्रियाहीनं मधुरं वचनं तथा॥७४॥


जिस प्रकार से गन्धहीन होने पर सुन्दर रंगों से सम्पन्न पुष्प शोभा नहीं देता, उसी प्रकार से अकर्मण्य होने पर मधुरभाषी व्यक्ति भी शोभा नहीं देता।

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।
सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥७५॥


जिस व्यक्ति के भीतर उत्साह होता है वह बहुत बलवान होता है। उत्साह से बढ़कर कोई अन्य बल नहीं है, उत्साह ही परम् बल है। उत्साही व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी वस्तु दुर्लभ नहीं है।

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यांविहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥७६॥


जिस प्रकार से अन्धे व्यक्ति के लिए दर्पण कुछ नहीं कर सकता उसी प्रकार से विवेकहीन व्यक्ति के लिए शास्त्र भी कुछ नहीं कर सकते।

विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।
अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि कांचनम्॥७७॥


विष से भी मिले तो अमृत को स्वीकार करना चाहिए, छोटे बच्चे से भी मिले तो सुभाषित (अच्छी सीख) को स्वीकार करना चाहिए, शत्रु से भी मिले तो अच्छे गुण को स्वीकार करना चाहिए और गंदगी से भी मिले तो सोने को स्वीकार करना चाहिए।

मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे॥७८॥


भिन्न-भिन्न मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न-भिन्न सरोवर में भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न-भिन्न जाति के लोगों के भिन्न-भिन्न जीवनशैलियाँ (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न-भिन्न मुखों से भिन्न-भिन्न वाणी निकलती है।

नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभारणं गुनः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥७९॥


मनुष्य का अलंकार (गहना) रूप होता है, रूप का अलंकार (गहना) गुण होता है, गुण का अलंकार (गहना) ज्ञान होता है और ज्ञान का अलंकार (गहना) क्षमा होता है।

अपूर्व कोपि कोशोयं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धमायाति क्षयमायाति संचयात्॥८०॥


हे माता सरस्वती! आपका कोश (विद्या) बहुत ही अपूर्व है जिसे खर्च करने पर बढ़ते जाता है और संचय करने पर घटने लगता है।

इसी बात को इस प्रकार से भी कहा गया हैः

सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यौं खरचे त्यौं त्यौं बढ़े बिन खरचे घट जात॥


व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणाङ्गणे भवति।
विनये भृत्यपरीक्षा दानपरीक्षाच दुर्भिक्षे॥८१॥


खराब समय आने पर मित्र की परीक्षा होती है, युद्धस्थल में शूरवीर की परीक्षा होती है, नौकर की परीक्षा विनय से होती है और दान की परीक्षा अकाल पड़ने पर होती है।

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्य पापं गुरस्था॥८२॥


राष्ट्र के अहित का जिम्मेदार राजा का पाप होता है, राजा के पाप का जिम्मेदार उसका पुरोहित (मन्त्रीगण) होता है, स्त्री के गलत कार्य का जिम्मेदार उसका पति होता है और शिष्य के पाप का जिम्मेदार गुरु होता है।

पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम्॥८३॥


ज्ञान यदि पुस्तक में ही रहे (अर्थात् उसे पढ़ा न जाए) और स्वयं का धन यदि किसी अन्य के हाथों में हो तो आवश्यकता पड़ने पर उस ज्ञान और धन का उपयोग नहीं नहीं किया जा सकता।

अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मामिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्॥८४॥


निम्न वर्ग का व्यक्ति केवल धन की इच्छा रखता है, मध्यम वर्ग का व्यक्ति धन और मान दोनों की ही इच्छा रखता है और उत्तम वर्ग का व्यक्ति केवल मान-सम्मान की इच्छा रखता है। मान-सम्मान का धन से अधिक महत्व होता है।

अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव परित्यजेत्।
शनैः शनैश्च भोक्व्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्॥८५॥


बहुत अधिक इच्छाएँ करना सही नहीं है और इच्छाओं का त्याग कर देना भी सही नहीं है। अपने उपार्जित (कमाए हुए) धन के अनुरूप ही इच्छा करना चाहिए वह भी एक बार में नहीं बल्कि धीरे धीरे।

यहाँ पर उल्लेखनीय है कि आज का बाजारवाद हमें उपरोक्त सीख से उल्टा करने की ही प्रेरणा देता है, बाजारवादद के कारण ही एक बार में ही अनेक और अपने द्वारा कमाए गए धन से अधिक इच्छा करके अपने सामर्थ्य से अधिक का सामान, वह भी विलासिता लेने को हम उचित समझने लगे हैं, भले ही उसके लिए हमें कर्ज में डूब जाना पड़े।

वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च॥८६॥


समुद्र में हुई वर्षा का कोई मतलब नहीं होता, भरपेट खाकर तृप्त हुए व्यक्ति को भोजन कराने का कोई मतलब नहीं होता, धनाढ्य व्यक्ति को दान देने का कोई मतलब नहीं होता और सूर्य के प्रकाश में दिया जलाने का कोई मतलब नहीं होता।

पबन्ति नद्यः स्वयं एव न अम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
न अदन्ति सस्य खलु वारिवाहा परोपकाराय सतां विभतयः॥८७॥


नदी स्वयं के जल को नहीं पीती, वृक्ष स्वयं के फल को नहीं खाते और बादल अपने द्वारा पानी बरसा कर पैदा किए गए अन्न को नहीं खाते। सज्जन हमेशा परोपकार ही करते हैं।

इसी को रहीम कवि ने इस प्रकार से कहा हैः

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्॥८८॥


महान व्यक्तियों की संगति किसे उन्नति प्रदान नहीं करती? (अर्थात् महान व्यक्तियों की संगति से उन्नति ही होती है।) कमल के फूल पर पानी की बूंद मोती के समान दिखने लगता है (अर्थात् कमल की संगत से पानी मोती बन जाता है।)

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥८९॥


उपदेश देकर किसी के स्वभाव को बदला नहीं जा सकता, पानी को कितना भी गरम करो, कुछ समय बाद वह फिर से ठंडा हो ही जाता है।

दानेन तुल्यो विधिरास्ति नान्यो लोभोच नान्योस्ति रिपुः पृथिव्यां।
विभूषणं शीलसमं च नान्यत् सन्तोषतुल्यं धमस्ति नान्य्॥९०॥


दान के समान अन्य कोई अच्छा कर्म नहीं है, लोभ के समान इस पृथ्वी पर कोई अन्य शत्रु नहीं है, शील के समान कोई गहना नहीं है और सन्तोष के समान कोई धन नहीं है।

परोऽपि हितवान् बन्धुः बन्धुरप्यहितः परः।
अहितो देहजो व्याधिः हितमारण्यमौषधम्॥९१॥
(हितोपदेश)

व्याधियाँ (बीमारियाँ) हमारे शरीर के भीतर रहते हुए भी हमारा बुरा करती हैं और औषधियाँ (जड़ी-बूटियाँ) हमसे दूर पेड़-पौधों में में रहकर भी हमारा भला करती हैं (अर्थात् व्याधियाँ हमारे दुश्मन हैं और औषधियाँ मित्र)। इसी प्रकार से जिनसे हमारा रक्त का सम्बन्ध अर्थात् किसी प्रकार की रिश्तेदार न हो किन्तु वह हमारा हित करे तो वे अपने होते हैं और यदि रिश्तेदार होकर भी कोई हमारा अहित करे तो वह पराया होता है।

अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानिः पदे पदे।
पावको लौहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते॥९२॥


दुष्ट के संग रहने पर कदम कदम पर अपमान होता है। पावक (अग्नि) जब लोहे के साथ होता है तो उसे घन से पीटा जाता है।

चिता चिन्तासम ह्युक्ता बिन्दुमात्र विशेषतः।
सजीवं दहते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता॥९३॥


चिता और चिंता में मात्र एक बिन्दु (अनुस्वार) का ही फर्क है किन्तु दोनों ही एक समान है, जो जीते जी जलाता है वह चिंता है और जो मरने के बाद (निर्जीव) को जलाता है वह चिता है।

अङ्गणवेदी वसुधा कुल्या जलधिः स्थली च पातालम्।
वल्मीकश्च सुमेरुः कृतप्रतिज्ञस्य धीरस्य॥९४॥


अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने वाले धीर व्यक्ति के लिए यह वसुधा (पृथ्वी) एक बगिया के समान होता है (जब चाहे घूम कर जी बहला लो), समुद्र एक नहर के समान होता है (जब चाहे तैर कर पार कर लो), पाताल लोक एक मनोरंजन स्थल (पिकनिक स्पॉट) के समान होता है (जब जाहे जाकर पिकनिक मना लो) और सुमेरु पर्वत एक चींटी के घर के समान होता है (जब चाहे चोटी पर चढ़ जाओ)। (अतः मनुष्य को दृढ़प्रतिज्ञ एवं धीर-गम्भीर होना चाहिए।)

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भूविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥९५॥


विद्या, तप (कठिन परिश्रम कर पाने की योग्यता), दानशीलता, शील, गुण तथा धर्म से विहीन व्यक्ति मृत्युलोक (पृथ्वी) पर भार के समान है, वह मनुष्य के रूप में पशु ही है।

माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥९६॥


माता, पिता और मित्र तीनों ही स्वभावतः ही हमारे हित के लिए सोचते हैं, वे हमारे हित करने के बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। इन तीनों के सिवाय अन्य लोग यदि हमारे हित की सोचते हैं तो वे उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ अपेक्षा भी रखते हैं।

वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥९७॥


सदैव प्रसन्न-वदन (हँसमुख), हृदय में दया की भावना रखने वाले, अमृत के समान मीठे वचन बोलने वाले तथा परोपकार में लिप्त रहने वाले व्यक्ति भला किसके लिए वन्दनीय नहीं होगा?

गर्वाय परपीड़ाय दुर्जस्य धनं बलम्।
सज्जनस्य दानाय रक्षणाय च ते सदा॥९८॥


दुर्जन (दुष्ट) का धन और बल गर्व (घमण्ड) तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाना होता है और दान एवं (निर्बलों की) रक्षा करना सज्जन का।

यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः।
चित्ते वाचि क्रियायां च साधुनामेकरूपता॥९९॥


जो चित्त (मन) में हो वही वाणी से प्रकट होना चाहिए और जो वाणी से प्रकट हो उसके अनुरूप ही कार्य करना चाहिए। जिनके चित्त, वाणी और कर्म में एकरूपता होती है वही साधुजन होते हैं।

छायामन्यस्य कुर्वन्ति स्वयं तिष्टन्ति चातपे।
फलान्यपि परार्थाय वृक्षाः सत्पुरुष इव॥१००॥


वृक्ष स्वयं सूर्य के प्रखर ताप को सहन करके दूसरों को छाया प्रदान करते हैं तथा उनके फल भी दूसरों के उपयोग के लिए होते हैं, वृक्ष के समान सत्पुरुष भला कौन है?

सुभाषितानि नीति सूत्रायच


सुभाषितानि नीति सूत्रायच !!

कुछ श्लोक जो मन में कभी भी घुमड आते हैं और प्रयत्न करने से दिमाग में नहीं आते

२१. दुर्जनम् प्रथमं वन्दे, सज्जनं तदनन्तरम्। मुख प्रक्षालनत् पूर्वे गुदा प्रक्षालनम् यथा  

First attend the people who are not so good, the the better ones. Like in the morning we wash our face after washing our rear ends :) 

पहले कुटिल व्यक्तियों को प्रणाम करना चाहिये, सज्जनों को उसके बाद; जैसे मुँह धोने से पहले, गुदा धोयी जाती है  

२२. अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम उदारचरितानामतु वसुधैवकुटुम्बकम्  

It's mine and that is other's, this is a thought of a narrow-hearted (selfish) person, For generous people this whole world is their family. 

यह मेरा है, यह दूसरे का है, ऐसा छोटी बुद्धि वाले सोचते हैं; उदार चरित्र वालों के लिये तो धरती ही परिवार है  

२३. विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेशाम् परपीड़नाय खलस्य साधोर्विपरीतमेतद ज्ञानाय, दानायचरक्षणाय॥ 

Knowledge for altercations, Wealth for arrogance, power to harass others. But in gentlemen these traits are opposite then the miscreants, It is for wisdom, charity and to protect respectively. 

विद्या विवाद के लिये, धन मद के लिये, शक्ति दूसरों को सताने के लिये, ये चीजें सज्जन लोगों में दुष्टों से उल्टी होती हैं, क्रमशः ज्ञान, दान और रक्षा के लिये  

२४. चौरहार्यम् राजहार्यम् भ्रातृभाज्यम् भारकारि व्यये कृते वर्धत एव नित्यम् विद्या धनं सर्व धनम् प्रधानम्  

Neither thieves can snatch it away nor the king, Neither brothers can divide it nor it is heavy. It keeps on increasing as you spend it (with others), So the wealth of knowledge is superior to all. 

चोर चुरा सकता है, राजा छीन सकता है, भाई बांट सकते हैं और यह भारी है। खर्च करने पर रोज बढती है, विद्या धन सभी धनों में प्रधान है  

२५. ताराणां भूषणम् चन्द्र, नारीणां भूषणम् पतिः पृथिव्यां भूषणम् राज्ञः विद्या सर्वस्य भूषणम्  

Star's grace is the moon, Husband is the ornament for a woman. Land's grace is a king and knowledge is ornament for all (everyone). 

चन्द्रमा तारों का आभूषण है, नारी का भूषण पति है पृथ्वी का अभूषण राजा है और विद्या सभी का आभूषण है  

२६. उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रिया विधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् शूरं कृतज्ञं दृढ सौहृतम् लक्ष्मीः स्वयं याति निवास हेतो  

Lakshmi (Goddess of Wealth) comes to live with him, who is full of excitement, active, posses skills and indulged in good work. Who is courageous, grateful, has solid friendship. 

जो उत्साह से भरा है, आलसी नहीं है, क्रिया कुशल है और अच्छे कामों में रत है, वीर, कृतज्ञ और अच्छी मित्रता रखने वाला है, लक्ष्मी उस के साथ रहने अपने आप आती है

२७. आचारः परमो धर्म आचारः परमं तपः। आचारः परमं ज्ञानम् आचरात् किं साध्यते॥

Good conduct is the highest dharma, it is the greatest penance. It is also the greatest knowledge. What can't be achieved through good conduct?

व्यवहार परम धर्म है, व्यवहार ही परम तप है, व्यवहार ही परम ज्ञान है, व्यवहार से क्या नहीं मिल सकता

२८. शैले शैले माणिक्यं मौक्तिकं गजे गजे। साधवो हि सर्वत्र चन्दनं वने वने॥

Every stone is not a jewel, Every elephant doesn't has gem. Gentlemen are not available everywhere Sandal doesn't exist in every forest.

हर पत्थर मणि नहीं होता, हर हाथी पर मुक्ता नहीं होता सज्जन सभी जगह नहीं होते और चंदन हर वन में नहीं होता

२९. पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्। कार्यकाले समुत्पन्ने सा विद्या तद् धनम्॥

Knowledge which is in book and money which is given to another one, Then when required at that time neither that knowledge nor that money can be used.

किताब में रखा ज्ञान और दूसरे को दिया धन, काम पडने पर वह विद्या काम आती है और वह धन

३०. वरमेको गुणी पुत्रः मूर्खशतान्यपि। एकश्चंद्रस्तमो हन्तिः तारागणाऽपि च॥

(O God!) Give me a virtuous son, instead of hundreds of wicked. Only one moon can lighten in the dark but not all stars can do it.

मुझे एक गुणी पुत्र मिले कि सौ मूर्ख पुत्र, एक ही चन्द्रमा अन्धेरे को खत्म करता है, सभी तारे मिल कर भी नहीं कर पाते