Tuesday, July 19, 2022

प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो-व्याख्या सहित

 प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो-व्याख्या सहित 

प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो.

हे ईश्वर हे मेरे आराध्य  देव मेरी कमज़ोरियों पर मेरे अवगुणों पर ध्यान न दें उन्हें उन पर विचार न करें चित्त में प्रवेश न दें। 

समदर्शी है नाम तिहारो , 

आप गुणी अवगुणी ,कामिक्रोधी पुण्यात्मा जीव मात्र में भेद-भाव नहीं करते सब पर अपनी करुणदृष्टि रखते हैं। 

चाहो तो पार करो। 

संसार समुद्र से सांसारिक मायावी प्रपंच से मुझे आप चाहे तो तार सकते हैं मेरा भी उद्धार कर सकते है। भवसागर के पार ले जा सकते हैं। 

एक लोहा पूजा में राखत ,

लोहे की तलवार पूजी जाती है। मंदिर में देवप्रतिमाओं में स्थान पा जाती है। 

एक घर बधिक परो। 

एक कसाई के कर्म का साधन बनी हुई है। पशु वध  के काम आती है।

सो दुविधा पारस नहीं जानत ,

कंचन करत  खरो। 

लेकिन आप जैसा पारस पत्थर (गुरु )अपने स्पर्श से दोनों को कंचन (स्वर्ण )बना देता है।

  इक नदिया एक नाल कहावत ,

मैला ही नीर भरो. 

एक का सदानीरा जल पावित्र्य का प्रतीक पापनाशक ,माना जाता है दूसरे का संदूषण  युक्त रोगकारक गंदा नाला समझा जाता है।गंगा नाम पड़  गया दोनों का ,एक का अस्तित्व  दूसरे में विलीन हो गया।  

जब मिली दोनों एक बरन भये ,

सुरसरि नाम परो.  

जब दोनों का मिलन हो जाता है तब सदानीरा गंगा (पापनाशिनी गंगा माता )कहलाते हैं।  

एक  माया एक  ब्रह्म कहावत 

सूर श्याम  झगरो। 

ये जीव ब्रह्म स्वरूप ही है काया (शरीर माया )से बढ़ होने पर ब्रह्म से विमुख हो गया है अपने स्वरूप को बिसरा चुका है ,लेकिन एक बार भी हम ब्रह्म शब्द का उच्चारण कर लें 

अब की बेर मोही  पार उतारो ,

 नहिं  पन जात तरो।

के इनको निर्धार कीजिये ,

के पन जात  तरो।

मूल पद : 

प्रभु जी मोरे अवगुण चित ना धरो समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो प्रभु जी मोरे अवगुण चित ना धरो समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो | सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो || प्रभु जी मोरे अवगुण चित ना धरो…. एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो | जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो || प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो... एक माया एक ब्रह्म कहावत, सूर श्याम झगरो | अब की बेर मोहे पार उतारो, नही पन जात तरो || प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो…. प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो

दुनिया दर्शन का है मेला ,अपनी करनी पार उतरनी , गुरु होए चाहे चेला ,दुनिया दर्शन का है मेला

 संत कबीर भजन


आया है तो जाएगा ,तू सोच अभिमानी मन ,

चेत अब चेत दिवस तेरो नियराना है ,

कर से करूँ दान माँग ,मुख से जपु राम राम ,

वाहि  दिन आवेगा ,जाहि दिन जाना है।

नदिया है अगम तेरी ,सूझत नहीं आर -पार ,

बूड़त हो बीच धार ,अब क्या पछताना है।

है- रे अभिमानी मन ,झूठी माया संसारी -गति ,

मुठी बाँध आया है ,खाली हाथ जाना है।

स्थाई :

दुनिया दर्शन का है मेला ,अपनी करनी पार उतरनी ,

गुरु होए चाहे चेला ,दुनिया दर्शन का है मेला।

अंतरा :

कंकरी (कंकर )चुनि -चुनि महल बनाया ,लोग कहें घर मेरा ,

घर मेरा घर तेरा ,चिड़िया रैन बसेरा ,दुनिया दर्शन का है मेला।

अंतरा :

महल बनाया किला चुनाया ,खेलन को सब खेला ,

चलने की जब बेला आई ,सब तजि चला अकेला ,

दुनिया दर्शन का है मेला।

अंतरा :

कुछि लेकर आया बन्दे ,

कुछि है यहां तेरा ,

कहत कबीर सुनो भाई साधो ,

संग जाए धेला।

दुनिया दर्शन का है मेला ,अपनी करनी पार उतरनी

गुरु होए चाहे चेला।

भावार्थ :कबीर दास ने अन्यत्र भी कहा है :आये हैं सो जाएंगे ,राजा रंक फ़कीर ,एक सिंहासन चढ़ि चले ,एक बंधे जंजीर। फिर भी व्यक्ति को संसार की आसक्ति भ्रांत किये रहती है। जब मूल लक्ष्य का पता चलता है कि ये संसार तो नश्वर है यहां कुछ भी स्थाई नहीं है सब कुछ तेज़ी से बदल रहा है। तब थोड़ी थोड़ी भ्रान्ति दूर होती है तब इल्म होता है कुछ दान पुण्य कर लूँ उस परम शक्ति को याद कर लूँ कुछ जप कुछ तप कर लूँ  .

लोक तो हाथ से निकल गया परलोक संवार लूँ। जीवन तो जीना है पर संसार की आसक्ति से निकलना है। तभी जीवन को लक्ष्य की प्राप्ति होगी। आवागमन का चक्र बड़ा गहन है संतो के संग बैठ कर ही इसके मर्म को जाना जा सकता है। अगम है ये संसार एक नदिया की तरह।  अब आकर जाना तूने कुछ नहीं कमाया व्यर्थ कर दिया सारा जीवन तेरी मेरी में।

 
यहां तो सिकंदर भी खाली हाथ गया था। उसने अपने सेनापति को कहा था मेरे हाथ मेरे जनाज़े से बाहर रहें ताकि दुनिया ये जान ले सिकंदर जो विश्व विजय का सपना पाले था खाली हाथ ही गया है।

संसार की आसक्ति से ही उसे अहंकार हुआ था।

अब जब तू बीच भंवर डूब रहा है अब क्या पछताने का फायदा अब अगले जन्म की सोच ये जीवन तो गया।

दुनिया दर्शन का है मेला -

कबीर दास कहते हैं दुनिया में आये हो तो कुछ समझने बूझने के लिए आये हो। सदकर्म करोगे तो पार उतर  जाओगे।  फिर चाहे कोई ग्यानी हो या शिष्य हो। तुलसी दास भी कहते हैं :

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ,जो जस करहि सो तसि फलु चाखा।

ये संसार एक चिड़ियाघर है। जिसे तू घर समझ रहा है वह तेरा शरीर भी किराए का मकान है जिसके पांच हिस्सेदार हैं -आकाश ,वायु ,अग्नि ,जल ,और पृथ्वी। फिर इस ईंट गारे से बने घर का तो कहना ही क्या है।

यहां सब खेल खेल लिया तुमने पर ये जाना की ये वर्तमान ही सच है ये मेरे कल के कर्मों का नतीजा है और जो कुछ मैं जा कर रहा हूँ वही मेरे कल का प्रारब्ध होगा। कोठी बंगला महल दुमहला सब यही धरा रह जाएगा संग जाए तेरे धेला।



अपना भाग्य लिखो बन्दे कर्म करो आसक्ति तजके।