Wednesday, April 10, 2024

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)

 विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)


■ काष्ठा = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग

■ 1 त्रुटि  = सैकन्ड का 300 वाँ भाग

■ 2 त्रुटि  = 1 लव ,

■ 1 लव = 1 क्षण

■ 30 क्षण = 1 विपल ,

■ 60 विपल = 1 पल

■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,

■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )

■3 होरा=1प्रहर व 8 प्रहर 1 दिवस (वार)

■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,

■ 7 दिवस = 1 सप्ताह

■ 4 सप्ताह = 1 माह ,

■ 2 माह = 1 ऋतू

■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,

■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी

■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,

■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग

■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,

■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,

■ 4 युग = सतयुग

■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग

■ 72 महायुग = मनवन्तर ,

■ 1000 महायुग = 1 कल्प

■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )

■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )

■ महालय  = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )


सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यहीं है जो हमारे देश भारत में बना हुआ है । ये हमारा भारत जिस पर हमे गर्व होना चाहिये l

दो लिंग : नर और नारी ।

दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।

दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।

दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।


तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।

तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।

तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।

तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।

तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।

तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।

तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।

तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।

तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।

तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।

तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।

तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।

तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।


चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।

चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।

चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।

चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।

चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।

चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।

चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।

चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।

चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।

चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।

चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।

चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।

चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।

चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।

चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।


पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।

पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।

पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।

पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।

पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।

पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।

पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।

पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।

पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।

पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।

पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।

पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।

पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।


छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।

छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।

छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।

छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।


सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।

सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।

सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।

सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।

सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।

सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।

सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप

Saturday, April 6, 2024

सदा न फूलै केतकी, सदा न सावन होए।

सदा न फूलै केतकी, सदा न सावन होए। सदा न विपदा रह सके, सदा न सुख भी होए। सदा न मौज बसन्त री, सदा न ग्रीष्म भाण। सदा न जोवन थिर रहे, सदा न संपत माण। सदा न काहू की रही, गल प्रीतम की बांह। ढ़लते ढ़लते ढ़ल गई, तरवर की सी छाँह।

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Wednesday, June 28, 2023

आयुर्वेदोक्त #भोजन विधि

आयुर्वेदोक्त #भोजन विधि
 "भोजन विधि" (भोजन खाने के नियम)

 (1) भोजनाग्रे सदा पथ्यनलवणार्द्रकभक्षणम् |
       अग्निसंदीपनं रुच्यं जिह्वाकण्ठविशोधनम् ||

 भोजन शुरू करने से पहले आपको आद्रक (अदरक) का छोटा टुकड़ा और चुटकी भर सैंधव (सेंधा नमक) मिलाकर खाना चाहिए।
 यह आपके पाचन को बढ़ावा देने के लिए आपकी अग्नि (पाचन अग्नि) को बढ़ाएगा, आपकी जीभ और गले को साफ करेगा जिससे आपकी स्वाद कलिकाएं सक्रिय होंगी।

 (2) घृतपूर्वं संश्नीयात कठिनं प्राक् ततो मृदु।
       अन्ते पुनर्द्रवाशि च बलरोग्ये न मुञ्चति।।

 घृत को अपने भोजन में शामिल करना चाहिए।  सबसे पहले सख्त खाद्य पदार्थ जैसे रोटी आदि से शुरुआत करें, फिर नरम खाद्य पदार्थ खाएं।  भोजन के अंत में आपको तक्र (छाछ) जैसे तरल पदार्थ का सेवन करना चाहिए।  ऐसा करने से आपको ऊर्जा और स्वास्थ्य मिलता है।

 (3) अश्नियात्तनमना भूत्वा पूर्वं तु मधुरं रसम्।
       मध्येऽमल्लवणौ मूर्ति कटुतिक्तक्षायकं।।

 भोजन एकाग्रचित्त होकर करना चाहिए।  सबसे पहले, मधुर द्रव्य (मीठा भोजन) से शुरू करें, फिर बीच में, अमला द्रव्य (खट्टा भोजन) और लवण युक्त द्रव्य (नमकीन भोजन), और अंत में, तिक्त द्रव्य (कड़वा भोजन), कटु द्रव्य (मसालेदार भोजन),  और कषाय द्रव्य (कसैला भोजन)।

 (4) फलान्यादौ समश्नीयाद दादिमादीनि बुद्धि।
       विना मोचाफलं तद्वद् वरिअय च कर्कति।।

 नरम भोजन में सबसे पहले दाड़िमा आदि फलों से शुरुआत करें, लेकिन भोजन की शुरुआत में केला और खीरा जैसे फल न खाएं क्योंकि खीरे में पानी होता है इसलिए यह पाचन अग्नि को कम कर देगा।

 (5) अन्नेन कुक्षेर्द्वावंशौ पवेनैकं प्रापुरयेत्।
       आश्रयं पवनदीनां चतुर्थमवशेषयेत्।।

 पेट के दो हिस्से (पेट की आधी क्षमता) ठोस भोजन से भरे होने चाहिए, पेट का एक हिस्सा तरल भोजन से भरा होना चाहिए और पेट का बाकी हिस्सा वात यानी हवा के मुक्त प्रवाह के लिए खाली रखा जाना चाहिए।

 वैधानिक अधिसूचना करने से पूर्व पंजीकृत आयुर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श लें

Tuesday, July 19, 2022

प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो-व्याख्या सहित

 प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो-व्याख्या सहित 

प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो.

हे ईश्वर हे मेरे आराध्य  देव मेरी कमज़ोरियों पर मेरे अवगुणों पर ध्यान न दें उन्हें उन पर विचार न करें चित्त में प्रवेश न दें। 

समदर्शी है नाम तिहारो , 

आप गुणी अवगुणी ,कामिक्रोधी पुण्यात्मा जीव मात्र में भेद-भाव नहीं करते सब पर अपनी करुणदृष्टि रखते हैं। 

चाहो तो पार करो। 

संसार समुद्र से सांसारिक मायावी प्रपंच से मुझे आप चाहे तो तार सकते हैं मेरा भी उद्धार कर सकते है। भवसागर के पार ले जा सकते हैं। 

एक लोहा पूजा में राखत ,

लोहे की तलवार पूजी जाती है। मंदिर में देवप्रतिमाओं में स्थान पा जाती है। 

एक घर बधिक परो। 

एक कसाई के कर्म का साधन बनी हुई है। पशु वध  के काम आती है।

सो दुविधा पारस नहीं जानत ,

कंचन करत  खरो। 

लेकिन आप जैसा पारस पत्थर (गुरु )अपने स्पर्श से दोनों को कंचन (स्वर्ण )बना देता है।

  इक नदिया एक नाल कहावत ,

मैला ही नीर भरो. 

एक का सदानीरा जल पावित्र्य का प्रतीक पापनाशक ,माना जाता है दूसरे का संदूषण  युक्त रोगकारक गंदा नाला समझा जाता है।गंगा नाम पड़  गया दोनों का ,एक का अस्तित्व  दूसरे में विलीन हो गया।  

जब मिली दोनों एक बरन भये ,

सुरसरि नाम परो.  

जब दोनों का मिलन हो जाता है तब सदानीरा गंगा (पापनाशिनी गंगा माता )कहलाते हैं।  

एक  माया एक  ब्रह्म कहावत 

सूर श्याम  झगरो। 

ये जीव ब्रह्म स्वरूप ही है काया (शरीर माया )से बढ़ होने पर ब्रह्म से विमुख हो गया है अपने स्वरूप को बिसरा चुका है ,लेकिन एक बार भी हम ब्रह्म शब्द का उच्चारण कर लें 

अब की बेर मोही  पार उतारो ,

 नहिं  पन जात तरो।

के इनको निर्धार कीजिये ,

के पन जात  तरो।

मूल पद : 

प्रभु जी मोरे अवगुण चित ना धरो समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो प्रभु जी मोरे अवगुण चित ना धरो समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो | सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो || प्रभु जी मोरे अवगुण चित ना धरो…. एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो | जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो || प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो... एक माया एक ब्रह्म कहावत, सूर श्याम झगरो | अब की बेर मोहे पार उतारो, नही पन जात तरो || प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो…. प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो

दुनिया दर्शन का है मेला ,अपनी करनी पार उतरनी , गुरु होए चाहे चेला ,दुनिया दर्शन का है मेला

 संत कबीर भजन


आया है तो जाएगा ,तू सोच अभिमानी मन ,

चेत अब चेत दिवस तेरो नियराना है ,

कर से करूँ दान माँग ,मुख से जपु राम राम ,

वाहि  दिन आवेगा ,जाहि दिन जाना है।

नदिया है अगम तेरी ,सूझत नहीं आर -पार ,

बूड़त हो बीच धार ,अब क्या पछताना है।

है- रे अभिमानी मन ,झूठी माया संसारी -गति ,

मुठी बाँध आया है ,खाली हाथ जाना है।

स्थाई :

दुनिया दर्शन का है मेला ,अपनी करनी पार उतरनी ,

गुरु होए चाहे चेला ,दुनिया दर्शन का है मेला।

अंतरा :

कंकरी (कंकर )चुनि -चुनि महल बनाया ,लोग कहें घर मेरा ,

घर मेरा घर तेरा ,चिड़िया रैन बसेरा ,दुनिया दर्शन का है मेला।

अंतरा :

महल बनाया किला चुनाया ,खेलन को सब खेला ,

चलने की जब बेला आई ,सब तजि चला अकेला ,

दुनिया दर्शन का है मेला।

अंतरा :

कुछि लेकर आया बन्दे ,

कुछि है यहां तेरा ,

कहत कबीर सुनो भाई साधो ,

संग जाए धेला।

दुनिया दर्शन का है मेला ,अपनी करनी पार उतरनी

गुरु होए चाहे चेला।

भावार्थ :कबीर दास ने अन्यत्र भी कहा है :आये हैं सो जाएंगे ,राजा रंक फ़कीर ,एक सिंहासन चढ़ि चले ,एक बंधे जंजीर। फिर भी व्यक्ति को संसार की आसक्ति भ्रांत किये रहती है। जब मूल लक्ष्य का पता चलता है कि ये संसार तो नश्वर है यहां कुछ भी स्थाई नहीं है सब कुछ तेज़ी से बदल रहा है। तब थोड़ी थोड़ी भ्रान्ति दूर होती है तब इल्म होता है कुछ दान पुण्य कर लूँ उस परम शक्ति को याद कर लूँ कुछ जप कुछ तप कर लूँ  .

लोक तो हाथ से निकल गया परलोक संवार लूँ। जीवन तो जीना है पर संसार की आसक्ति से निकलना है। तभी जीवन को लक्ष्य की प्राप्ति होगी। आवागमन का चक्र बड़ा गहन है संतो के संग बैठ कर ही इसके मर्म को जाना जा सकता है। अगम है ये संसार एक नदिया की तरह।  अब आकर जाना तूने कुछ नहीं कमाया व्यर्थ कर दिया सारा जीवन तेरी मेरी में।

 
यहां तो सिकंदर भी खाली हाथ गया था। उसने अपने सेनापति को कहा था मेरे हाथ मेरे जनाज़े से बाहर रहें ताकि दुनिया ये जान ले सिकंदर जो विश्व विजय का सपना पाले था खाली हाथ ही गया है।

संसार की आसक्ति से ही उसे अहंकार हुआ था।

अब जब तू बीच भंवर डूब रहा है अब क्या पछताने का फायदा अब अगले जन्म की सोच ये जीवन तो गया।

दुनिया दर्शन का है मेला -

कबीर दास कहते हैं दुनिया में आये हो तो कुछ समझने बूझने के लिए आये हो। सदकर्म करोगे तो पार उतर  जाओगे।  फिर चाहे कोई ग्यानी हो या शिष्य हो। तुलसी दास भी कहते हैं :

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ,जो जस करहि सो तसि फलु चाखा।

ये संसार एक चिड़ियाघर है। जिसे तू घर समझ रहा है वह तेरा शरीर भी किराए का मकान है जिसके पांच हिस्सेदार हैं -आकाश ,वायु ,अग्नि ,जल ,और पृथ्वी। फिर इस ईंट गारे से बने घर का तो कहना ही क्या है।

यहां सब खेल खेल लिया तुमने पर ये जाना की ये वर्तमान ही सच है ये मेरे कल के कर्मों का नतीजा है और जो कुछ मैं जा कर रहा हूँ वही मेरे कल का प्रारब्ध होगा। कोठी बंगला महल दुमहला सब यही धरा रह जाएगा संग जाए तेरे धेला।



अपना भाग्य लिखो बन्दे कर्म करो आसक्ति तजके।