Wednesday, July 19, 2017

कविता - मुक्ति का द्वार

आज मैंने अपनी पहली कविता लिखी है।
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कविता - मुक्ति का द्वार
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प्रभु की कृपा है अपरम्पार
बिनु हरि कृपा न होइहि पार

प्रभु का भजन करे जो कोई
कृपा पात्र तब प्रभु के होइ

जो भी कृपा प्रभु की पइहैं
हाथ पकड़ के पार उतरीहै

जो होना चाहे भव से पार
नित्य भजन करे दिन चार

मानव तन है मुक्ति का द्वार
यह अवसर मिले एक बार

बड़े पुण्ड्या कर्मो से मिलता
जो भी हरि का भजन है करता

बिनु गुरु के कुछ समझ न आवै
हरि के रास्ता कौन दिखावै

जो करता गुरु का गुण गान
हरि भी उसके परमनिधान

ढूंढो गुरु को बारम्बार
अवसर छूटै न इस बार

गुरु में भी हो शक्ति अपार
जो करे तुम्हे दुखो से पार

भवसागर से होइहि पार
छूट न जाये अब की बार

व्यर्थ न हो जीवन इस बार
नही करना चौरसिया पार

दिखावे सीधा हरि का द्वार
एक नही हो एक हजार

प्रभु नही है बाहर द्वार
उनको ढूंढो अंतर द्वार

नाम उसके है अनेक प्रकार
एक नही है एक हजार

वही हमे भव पर उतारे
जब हम जाए उसके द्वारे

बस एक ही है आधार
राम कहो या ओमकार

हो जावो तुम अंतर्धान
मन से गुरु को करो प्रणाम

ॐ जपो या राम जपो
दिन में बारम्बार जपो

पूरी रात रहे लय प्रभु की
तभी मुक्ति होएगी सब की।

पं. अखिलेश्वर दुबे
अछोला मेजा इलाहाबाद
9819935922

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