चौपाईः-काहू न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सबु भ्राता।।
योग-वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा।।
जन्म मरण यहाँ लगि जग जालू। सम्पत्ति विपति कर्म अरु कालू।।
धरणि धाम धन पुर परिवारु। स्वर्ग नरक जहाँ लग व्यवहारु।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। माया कृत परमार्थ नाहीं।।
दोहाः-सपने होय भिखारि नृप, रंक नाकपति होय।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जग जोय।।
अर्थः-लक्ष्मण जी मीठी,कोमल,ज्ञान वैराग्य तथा भक्ति से भरपूर वाणी से बोले-ऐ निषादराज! संसार में न कोई किसी को सुख पहुँचा सकता है, न दुःख। हे भाई! सुख दुःख जीव को अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। योग अर्थात् मिलाप वियोग अर्थात् बिछोड़ा। भले तथा बुरे कर्मों का भोगना, मित्र-शत्रु तथा मध्यम अर्थात् निष्पक्ष आदि सब भ्रम का जाल है। इसके अतिरिक्त जन्म-मरण, जहां तक इस संसार का पसारा है-सम्पत्ति-विपत्ति-कर्म और काल-पृथ्वी घर-नगर-कुटम्ब,स्वर्ग व नरक एवं जो कुछ भी संसार में देखने सुनने और विचारने में आता है, यह सब माया का पसारा है। इसमें परमार्थ नाम मात्र भी नहीं है। जैसे सपने में राजा भिखारी होवे और कंगाल इन्द्र हो जावे परन्तु जागने पर लाभ या हानि कुछ नहीं-वैसे ही जगत् का प्रपंच स्वप्न के समान मिथ्या है। जागने पर पता लगता है कि न कोई लाभ हुआ है और न कोई हानि हुई है। यह तो सब माया का खेल था, यथार्थ कुछ भी नहीं था।
Saturday, May 18, 2024
Saturday, May 11, 2024
अच्छी थी, पगडंडी अपनी। सड़कों पर तो, जाम बहुत है।।
अच्छी थी, पगडंडी अपनी।
सड़कों पर तो, जाम बहुत है।।
फुर्र हो गई फुर्सत, अब तो।
सबके पास, काम बहुत है।।
नहीं जरूरत, बूढ़ों की अब।
हर बच्चा, बुद्धिमान बहुत है।।
उजड़ गए, सब बाग बगीचे।
दो गमलों में, शान बहुत है।।
मट्ठा, दही, नहीं खाते हैं।
कहते हैं, ज़ुकाम बहुत है।।
पीते हैं, जब चाय, तब कहीं।
कहते हैं, आराम बहुत है।।
बंद हो गई, चिट्ठी, पत्री।
फोनों पर, पैगाम बहुत है।।
आदी हैं, ए.सी. के इतने।
कहते बाहर, घाम बहुत है।।
झुके-झुके, स्कूली बच्चे।
बस्तों में, सामान बहुत है।।
सुविधाओं का, ढेर लगा है।
पर इंसान, परेशान बहुत है।।
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